बुधवार, 4 जुलाई 2012

तिथि दानी की कवितायेँ


                                                                                              
तिथि दानी 

तिथि दानी की कवितायेँ चुपचाप और धीरे - धीरे हमारे अंतस में प्रवेश करती हैं , | वैसे ही , जैसे किसी भी कविता को करना चाहिए ....|  न तो कोई अतिरिक्त शोर , और न ही कोई अतिरिक्त आग्रह ..| लेकिन  इन कविताओं से गुजरते हुए हम  यह पाते हैं , की इनकी पैठ हमारे भीतर संवेदना के उन तंतुओं तक पहुँच रही  है , जहाँ से और जिनके लिए  ये कवितायेँ लिखी गयी हैं ...|  जैसे  "माँ के हाथ" नामक कविता .....| शुरू में चलती हुयी यह सामान्य सी दिखने वाली कविता जब समापन की तरफ बढ़ती है , और जब अपने आप से यह सवाल पूछती है " क्या अपनी यंत्रवत सी ज़िंदगी में / मेरे हाथों में /कभी किसी को / दिखेगा मेरा वजूद " , तो यह मामूली सा सवाल , हमारे संपूर्ण दौर से किया गया सवाल दिखाई देता है | ऐसी बहुत सारी छोटी - छोटी बातों  से सजी ये कवितायेँ निःसंदेह एक बड़े वृत्त और बड़े फलक का निर्माण करती हैं .....

                            प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर तिथि दानी की तीन कवितायेँ 

 1...                                माँ के हाथ

ज़मीन पर बिछे गद्दे पर
लेट गई थी मैं शिथिल होकर
तभी मेरे सिर पर
फेरा था हाथ मेरी माँ ने
राहत में तब्दील हो गयी थी
उसी क्षण मेरी शिथिलता
नज़र आने लगे थे
मुझे कई इंद्रधनुष
अपनी माँ के उन हाथों में
जिसकी उँगलियाँ हो गयी थीं टेढ़ी-मेढ़ी
शायद पहले कभी
ग़ौर ना किया होगा
मैंने इस तरह।

पल भर में त्वरित गति से
मेरी स्मृति के पन्ने
पलटने लगे थे
पीछे की ओर
मुझे नज़र आने लगी थीं
माँ की वो ख़ूबसूरत उँगलियाँ
जो जलाई थीं उसने
कई दुनियादारों की फ़रमाइश में
और सबसे ज़्यादा
मुझे स्वाद की गर्माहट देने में

मैंने सीखा था
माँ की उँगलियों से
खुद जलकर
दूसरों के हृदय को
शीतल करने का नुस्ख़ा
झाँका था मैंने
माँ की जली-कटी
उँगलियों के घावों की गहराई में
जिसमें मुझे दिख रहे थे
कई लोगों के मुस्कुराते चेहरे

माँ कहती थी मुझसे
अपनी हथेलियाँ फैलाकर,
इन हाथों ने
ना जाने क्या-क्या किया
और आज देखो
क्या हो गयी इनकी हालत

माँ की बात
समझ नहीं आयी थी मुझे
मैं सोच रही थी कि
माँ ने पा लिया है
अपना वजूद
तितली, झरने, कोयल, जंगल, जानवर
आज सब हैं उसके साथ
माँ को कुछ
दे सकने की स्थिति में भी
चाहती थी मैं
कुछ माँगना उससे

क्या अपनी यंत्रवत सी ज़िंदगी में
मेरे हाथों में
कभी किसी को
दिखेगा मेरा वजूद

मैंने उससे कहा
वो दे मुझे हथियार
जो दे मुझे काम
उससे दूर रहने पर
दुनिया वालों से लड़ने में।
पर उसने मेरे हाथों में थमायी बाँसुरी
और कहा उसे बजाना सीखने के लिए।


2....       करते तलाश छाया की
                                             
करते तलाश छाया की
कभी फुटपाथ किनारे लगाए गए पेड़ों के नीचे
कभी किसी कॉलोनी की ऊँची बिल्डिंग तले
पर दुत्कार कर
भगा दिए जाते
वे बच्चे।
लोगों को नज़र आते थे वे
किसी चोर के मानिंद।

पीठ पर टँगा
प्लास्टिक का बोरा
मार्च की धूप से ज़्यादा
जला रहा था
उनकी पीठ।
उनके प्राण से ज़्यादा मूल्यवान था
उन बच्चों को
वह प्लास्टिक का बोरा।
महफ़ूज़ कर देना चाहते थे वे उसे
अपने प्राणों से भी पहले।
ढूँढ रहे थे अपने  लिए
या यूँ कहें बोरे के लिए
विश्राम की जगह।

अंतत: रुके वह
उन पेड़ों की छाँव तले
जो सरकार द्वारा नहीं लगाए गए थे।
वहाँ दूर-दूर तक नहीं था कोई
उन्हें वहाँ से भगाने के लिए
वहाँ नहीं था उन्हें डर
मालिक के उन पर झपट जाने का।
उनका बोरा था वहाँ पूर्णत: सुरक्षित।
उसमें रखी थीं
बेशक़ीमती चीज़ें
जो चुनी थीं उन्होंने
नंगे पाँव
झुलसते हुए धूप में
लगा कर अपने दोस्तों से शर्त
कि सबसे ज़्यादा कचराघरों
को छान मारने
और प्लास्टिक के बोरे को
सबसे ज़्यादा भरने वाले को 
मिलेगा ईनाम
उस हिस्से में बैठने का
जहाँ होगी सबसे ज़्यादा छाँव। 


 3...           ख़ामोश मन का समंदर
                                                                         

कैसे कहूँ वो सब
जो मैंने सोचा
कि तुमने समझ लिया।
समझ लिया नापकर
मेरे ख़ामोश मन का समंदर
और उसके तल में छुपी
मेरी तूफानी चीख को
समझ लिया तुमने
और
देख लिया
हवा में तैरती
मेरी आत्मा के चमकीले सपनों को

समझ लिया प्यार भरी थपकी देकर
बेहिसाब काम के बोझ से
थक कर चूर हो लौटी
कामकाजी महिला के
धम्म से
सोफ़े पर आ बैठने के एहसास को

कभी यूँ लगता है मुझे
कि
दुनिया भर के विद्वान दिमागों को
तुमने कर लिया है क़ैद
एक साथ अपने दिमाग़ में
तो अगले पल आ जाती है मुझमें
वह बेलगाम नदी की धार
जो तोड़ देती है बाँध की दीवार
और मैं बहती चली जाती हूं
न जाने किस दिशा में
यह सोच कर
कि, कहीं तो होगी वह चट्टान
जो थामेगी मेरा वेग
और मैं
हो जाऊँगी तब्दील तालाब में।

कैसे कहूँ वो सब
जो मैंने सोचा
कि तुमने समझ लिया।
समझ लिया करके दावा
मेरी पीड़ा का मर्ज़
मेरे इलाज के लिए
कीं तुमने बहुत सी प्यारी, समझदारी की बातें
जली मेरे मन में
ज्वाला विश्वास की
जो मेरी दवा बन गई।

एक बार फिर
मुँद गयीं मेरी आँखें
और ले गयीं मुझे
उस दुनिया में
जहाँ
कोई नहीं देखना चाहता
मनमोहक रंगीनियों के पीछे
दुबके पड़े सच के तार
जहाँ कोई नहीं सुनना चाहता
ख़ुमारी से भरपूर
थिरकाने वाले संगीत के पीछे
छिपा शोर
पर अचानक
बड़े झटके से
खुलीं मेरी आँखें
क्योंकि तोड़ दी थीं तुमने
वो पंखुड़ियाँ
बड़ी बेरहमी से
जो थीं
कभी किसी बाग़ के
सबसे ख़ूबसूरत फूल की।
वजूद में थी जिसके
विश्वास की ख़ुशबू।

फिर कभी अनपेक्षित ढंग से
मेरी तनहाई में
किसी सांप की तरह
फुफकारते और बेचैन बादल की तरह
बरसने को तैयार
मिले मुझे कुछ अपने
दिखा गए मुझे वह पत्थर
जिसकी मदद से
भगवान श्रीराम ने
किया था तैयार
असंभव सा
नज़र आने वाला
वह पुल ।
मैंने समझ लिया था
उनका इशारा
वो चाहते थे
उन पत्थरों की मदद से
मैं बनाऊँ इक पुल
जो मेरे मन के
ख़ामोश समंदर के पार
ले जाए मुझे
एक अज्ञात द्वीप पर।

पुल बनाने की कोशिश में
बढ़ी थी मैं आगे
पर खींच लिया था
मेरा पैर
उस तेज़ हवा ने
जो
तुम्हारे शहर की ओर से आयी थी।
जिसमें थी कोई सम्मोहक ख़ुशबू
फिर भी बारम्बार कीं मैंने कोशिशें
वो पुल बनाने की

जिसमें ख़ाक हो गया
क़तरा-क़तरा
मेरे शरीर के पसीने की आखिरी बूँद का।

इसलिए
अब मैं बैठी हूँ
कड़ी धूप में
सूरज ने ले लिया है
मुझे अपने आग़ोश में
तो कैसे कहूँ अब
वो सब
जो मैंने सोचा
कि तुमने समझ लिया
पर न जाने क्यों...
तुम ताक रहे हो
मेरी राह
एक बार फिर
आगे बढ़ के
फिर पीछे खिंच जाने की।




परिचय

नाम   तिथि दानी
जन्म   3 नवंबर
स्थान   जबलपुर( म.प्र.)
शिक्षा   एम.ए.(अँग्रेज़ी साहित्य),बी.जे.सी.(बैचलर ऑफ़ जर्नलिज़्म एंड कम्युनिकेशन्स),पी.जी.डिप्लोमा     इन इलेक्ट्रॉनिक एंड प्रिंट जर्नलिज़्म।
संप्रति   विभिन्न महाविद्यालयों में पाँच वर्षों के अध्यापन का अनुभव, आकाशवाणी(AIR) में तीन वर्षों तक कम्पियरिंग का अनुभव। वर्तमान में पर्ल्स न्यूज़ नेटवर्क और P7 News Channel, नोएडा में पत्रकार.

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं(वागर्थ,शुक्रवार,परिकथा, पाखी, नई दुनिया आदि) में कविताएँ,  कहानी, लेख प्रकाशित।
मोबाइल नं.-09958489639
पता- प्लॉट नं.15, के.जी. बोस नगर, गढ़ा, जबलपुर(म.प्र), पिन-482003



4 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर और सार्थक प्रस्तुति ............पहली कविता ने विशेष रूप से प्रभावित किया ...तिथि जी आप लिखती रहें |

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  2. तिथि दानी बिना किसी शोर-शराबे के बेहतर कवितायें लिख रहीं हैं. मां के हाथ और करते तलाश छाया की बेहतर कवितायें लगीं. कविताओं में तिथि की पक्षधरता को स्पष्ट तौर पर महसूस किया जा सकता है. तिथि को बधाई एवं प्रस्तुतीकरण के लिए आपका आभार.

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  3. तिथि दानी जी से परिचय और उनकी सुन्दर चुनिदा कविता प्रस्तुति के लिए आभार

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  4. मां की रूप को जिस मार्मिक तरीक से आपने दर्शाया है निश्चित रूप से वह हृदय को छू लेने वाला है । बुहत ही सुंदर रचना तिथि जी ।

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