रविवार, 22 जुलाई 2012

विमल चन्द्र पाण्डेय का संस्मरण -- बारहवीं किश्त


                             
विमलचंद्र पाण्डेय 
                                                                             

पिछली किश्तों में आपने पढ़ा कि एक तरफ जहाँ इलाहाबाद में 'मुखातिब' की गोष्ठियां अपने इलाहाबादी ठाट-बाट से जारी हैं , जिसमे श्रोता और लेखक दोनों के पास यह सुविधा रहती है , कि  वे एक दूसरे की खाट कभी भी खड़ी कर सकते हैं , वहीँ यू.एन.आई.की नौकरी में विमलचन्द्र पाण्डेय घिसटते हुए ही सही , लेकिन कन्फर्मेशन पा जाते हैं ...| इस संस्मरण में वे जिस तरह से पाठकों को हंसाते हंसाते रुलाने लगते हैं , वह कमाल का है | उनके और उनसे जुड़े पात्रों की कारगुजारियां हमें भीतर तक मथ देती हैं , और यह सोचने के लिए बाध्य कर देती हैं , कि यह व्यवस्था हमें किस मुकाम पर लेकर जा रही है | इस अंक में विमल अपनी  इस चिर-परिचित शैली के साथ -साथ अपने प्यार के दिनों को याद करते हुए अपने दिल के दरवाजे की एक और खिड़की पाठकों के सामने खोल रहे  हैं ...

     
     तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर विमलचंद्र पाण्डेय के संस्मरण 
                                                          ई इलाहाब्बाद है भईया की
                                                                     बारहवीं किश्त 


19-
इलाहाबाद की हवा थोड़ी बदलने लगी थी. शेषनाथ जैसे दोस्त इलाहाबाद छोड़ने की योजनाएं बनाने लगे थे और ये घटनाएँ मेरा दिल बैठाने वाली थीं. मैं उससे अक्सर बहस करने लगता कि रहने, जीने या मरने किसी भी लिहाज़ से इलाहाबाद से बेहतर कोई जगह नहीं है लेकिन वह कहता कि इलाहाबाद आपको धीरे-धीरे खत्म कर देता है. हम दोनों अपने-अपने तर्कों के लिए दलीलें देते और मैच ड्रा कराकर अपनी-अपनी किताबें पढ़ने लगते. शेषनाथ इलाहाबाद छोड़ कर चला जायेगा, ये मेरे मानने के लिए थोड़ी कठिन बात थी. मैं दरअसल स्वार्थी था और मुझे हमेशा कोई न कोई ऐसा दोस्त चाहिए होता था जो समझ के स्तर पर मेरे आसपास हो जिसके साथ मैं हंस बोल सकूँ. शेषनाथ का अपने भईया कम रूममेट (ज़्यादा) से किसी बात पर मनमुटाव हो गया था और वह आकर दो तीन महीने मेरे साथ रहा था जिससे मुझे अपनी अस्त-व्यस्त ज़िंदगी के अनुशासित होने की कुछ झलकियाँ मिली थीं. मेरे कमरे पर आते वक्त वह पांच छह बोरियां किताबें लाया था जिसमें से आधी उसके कोर्स की थीं तो आधी साहित्यिक पत्रिकाएं और कहानी कविता वगैरह. वह बहुत धार्मिक था और साहित्यिक लोगों के बीच उठते-बैठते उसके धार्मिक होने को कोई पकड़ न ले, इसलिए वह किसी अंजानी प्रक्रिया के तहत अपने धार्मिकपने को आध्यात्मिक होने में बदल चुका था. स्वास्थ्य, साहित्य के साथ उसकी प्राथमिकताओं में था और ये देखकर मुझे दुख होता था कि स्वास्थ्य नाम की जिस चीज़ को मैंने कभी सोचने लायक विषय ही नहीं समझा था, वह उसके यहाँ इतनी बड़ी चीज थी. उसकी किताबों में आरोग्यधाम और निरोगधाम नाम की भी बहुत सारी पत्रिकाएं थीं जिनमे वीर्य रक्षण और वीर्य गाढ़ा करने के तरीकों को लाल या नीली स्याही से अंडरलाईन किया गया था. मेरा स्वास्थ्य मेरे चेहरे से ना झलकने के बावजूद ठीक रहता था और विभिन्न स्रोतों से मेरी अद्यतन जानकारी के अनुसार मेरा वीर्य भी ठीकठाक था , इसलिए मैं ऐसी पत्रिकाओं में कोई रूचि नहीं लिया करता था लेकिन वो पत्रिकाएं मैंने इसलिए पढ़ कर देखीं क्योंकि उस समय मैं ‘एक शून्य शाश्वत’ नाम की कहानी लिखने में खोया हुआ था जो अध्यात्मिक बाबाओं के बहाने इस कारोबार पर टिपण्णी करती थी. मैंने पत्रिकाएं पलट कर देखीं और मुझे उनसे अपनी कहानी में काफ़ी मदद भी मिली. मैंने शेषनाथ से इस बाबत जानना चाहा तो उसने मासूमियत से बताया कि इसी साल उसका गौना होना है इसलिए वह हर तरह से तैयार रहना चाहता है. हालाँकि बाद में उसने खुद इन लेखों को अंडरलाइन करने से साफ़ इनकार कर दिया और बताया कि ये सब काम भईया किया करते थे. मैंने उसे गौने के लिए शुभकामनाएं दीं और गौर किया तो पाया कि रात को सोते वक्त वह अपना अंडरवियर उतार कर फिर से हाफ पैंट पहन लिया करता था. कारण पूछने पर उसने बताया कि रात को अंडरवियर पहन कर सोने पर शुक्राणु मर जाते हैं. मुझे इस नवीनतम जानकारी से बहुत आनंद मिला और मौका मिलते ही मैंने यह जानकारी विवेक को पास कर दी. विवेक ने शेषनाथ को कहा कि उन्हें स्पर्म बैंक में बात करनी चाहिए, वहाँ उन जैसे डेडिकेटेड लोगों को बहुत ज़रूरत है लेकिन शेषनाथ ने इसे गंभीरता से नहीं लिया. जिसे जब-जब जो-जो बात गंभीरता से लेनी चाहिए थी वो गंभीरता से नहीं ले रहा था. मैं मुंबई निकलने का मूड बना रहा था लेकिन उस अनजान शहर का डर हमेशा मुझे सताता रहता था. एक तो बचपन से देखी गयी मुम्बईया फिल्मों का डर था जिनमे किसी हिंदी भाषी क्षेत्र से गए आदमी का सामान स्टेशन पर ही चोरी हो जाया करता था और दूसरे उस शहर के महंगे होने का डर मुझे कोई भी कदम उठाने से डरा रहा था. अर्बेन्द्र हालाँकि यूनाइटेड भारत की पत्रकारिता से तंग आ गया था और इलाहाबाद छोड़ कर मुंबई अपने भईया के पास जाने का मन बना रहा था ,जो मुंबई में प्रोपर्टी डीलिंग का काम करते थे. मैंने साहित्य पृष्ठ के लिए साहित्यिक हस्तियों के साक्षात्कार लेने में उसकी मदद की थी और उस पेज पर आधे पेज पर जाने वाली उसकी बाईलाइनों ने उसके सहकर्मियों को उसका दुश्मन बना दिया था. दुनिया बहुत असुरक्षित होती जा रही थी और पत्रकारिता की दुनिया इसका प्रतिनिधित्व कर रही थी. उस पृष्ठ के लिए अर्बेन्द्र ने नीलाभ, (स्वर्गीय) अमरनाथ श्रीवास्तव, अमरकांत और हरिश्चंद पाण्डेय समेत कई साहित्यिक हस्तियों के साक्षात्कार लिए थे. हालाँकि ये अखबार का स्तर था कि नवगीतकार स्वर्गीय अमरनाथ श्रीवास्तव के साक्षात्कार में उनकी तस्वीर की जगह महेंद्र राजा जैन की फोटो लगायी गयी थी. इन अख़बारों को ऐसी छोटी गलतियों का कोई ख़ास पछतावा नहीं हुआ करता था. अर्बेन्द्र बहुत जल्दी किसी पर भी विश्वास कर लेने वाला आदमी था और यूनाइटेड भारत में जिस सीनियर राजीव चंदेल के वह पैर छुआ करता था वह कुछ सालों बाद एक लड़की का नौकरी देने के बहाने यौन शोषण करते और उसकी वीडियो बनाते हुए पकड़े गए. मुंबई आने के बाद भी, जब कितनी ही जगहों पर उसका कितना ही पैसा मार लिया गया, और वह इस आदत से एडजस्ट करना अभी सीख ही रहा है.

मैं कुछ नया करने की छटपटाहट में एक दिन अर्बेन्द्र के ही सौजन्य से उसके एक दोस्त अनिरुद्ध से मिला. खांटी इलाहाबादी का अर्थ क्या होता है, अनिरुद्ध से मिलने के बाद मुझे फिर कभी किसी से पूछने की ज़रूरत नहीं पड़ी. हमारी पहली मुलाकात अर्बेन्द्र के कमरे पर हुई थी जहाँ उसने बताया कि उसका ‘फाईट फॉर राईट’ नाम का एक एनजीओ है जिसके झंडे तले वह राईट बातों के पक्ष में फाईट करता रहता है. हम भी ऐसी ही फाईट करना चाहते थे और कहने की ज़रूरत नहीं कि मैं और विवेक उससे बहुत प्रभावित हुए. पहली ही मुलाकात में उसने अपनी योजनाओं से हमें जोश में भर दिया. वह हाई कोर्ट में प्रेक्टिस करता था और तब तक मैं ये नहीं समझ पाता था कि आखिर ये काले कोट वाले प्रेक्टिस किस बात की करते हैं. इस लिहाज से अनिरुद्ध ने मुझे न्याय व्यवस्था की झलकियाँ दिखाने के साथ इससे जुड़े कई भ्रम भी तोड़े. उसकी योजना थी कि ‘फाईट फॉर राईट’ के ज़रिये वह एक यूथ कन्वेंशन कराएगा. यूथ कन्वेंशन का नाम लेते ही उसके चेहरे पर एक चमक आ जाती थी और वह सीधा होकर बैठ जाता था. इलाहाबाद में मैंने हर गली में दो चार एनजीओ के बोर्ड तो देखे ही थे और कई बार मैं सोच में पड़ जाता था कि वहाँ मंदिर ज़्यादा हैं या फिर एनजीओ. अनिरुद्ध की यूथ कन्वेंशन की अवधारणा स्पष्ट थी. इसे लेकर वह इतना उत्साहित था कि विवेक अक्सर मुझसे कहा करता था कि अगर अनिरुद्ध मर जाए और चिता पर इसकी लाश रखने के बाद भी उसके कान में अगर कोई धीरे से ‘यूथ कन्वेंशन’ फुसफुसा दे तो वह जिंदा हो जायेगा. उसके पास इसे लेकर इतने ज़्यादा प्लान्स थे कि वह समझ नहीं पाता था कि उनमे से कौन सबसे अच्छा है. फिर भी वह उनमे से कई योजनाओं को मूर्त रूप देने का इच्छुक था और उसने वे सब हमसे डिस्कस भी कीं.

“एक लेटर बनायेंगे कि हम इलाहाबाद के कुछ यूथ मिलकर यूथ कन्वेंशन करना चाहते हैं. ये लेटर पूरे भारत के सभी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के छात्र संघों को भेजे जायेंगे. कितने विश्वविद्यालय होंगे देश में विमल लगभग ?”

“डेढ़ सौ से ऊपर ही होने चाहिएं.”

“बस तो ठीक है, सभी के छात्र संघ अध्यक्षों को बुलाया जायेगा. और उन यूनिवर्सिटीज के एचओडी को भी बुला लेंगे. अब बचे युवा सांसद. मेरे अंदाज़े से २०० से कम सांसद नहीं होंगे जिनकी उम्र ४० से नीचे होगी. उन सब को भी पत्र भेजेंगे कि हम देश का सबसे बड़ा यूथ कन्वेंशन करा रहे हैं और आपकी उपस्थिति सादर प्रार्थनीय है. कितने लोग हो गए...?”

“लेकिन वो सब आएंगे ?” विवेक या मैं शंका से पूछ बैठते.

“अरे उनके बाप भी आएंगे. पहले एक काम करेंगे. हम राहुल गाँधी को चिठ्ठी भेजेंगे. इस समय सबसे ज़्यादा चर्चा किसको चाहिए, राहुल गाँधी को. एक बार उसने आने की स्वीकृति दे दी फिर हर चिठ्ठी में लिख देंगे कि राहुल गाँधी जी यूथ कन्वेंशन की अध्यक्षता करेंगे फिर किसकी हिम्मत है कि आने को मना करे...कैसा है प्लान?”

हम मुग्ध होकर देखते रहते. इलाहाबाद जैसी लोकल राजनीति वाली जगह में इतनी बड़ी सोच रखने वाला आदमी हमें दूरदर्शी दिखाई देता. वह मुझे और विवेक को हर बार एक काम एलोट कर देता. 

“तुम विमल इंडिया के सभी यूनिवर्सिटीज की लिस्ट निकालो और तुम विवेक सभी ४० साल के कम वाले सांसदों की लिस्ट तैयार करो.”

हम अपने तईं तैयारियां करते लेकिन वह हर बार इतनी ही बातें करता. उसको ऐसी बातें करने में मज़ा आता था ये हमें थोड़ा बाद में पता चला. उसके बोलने का अंदाज़ पूरी दुनिया से अलग था. जितनी देर में वह एक वाक्य बोलता उतनी देर में मैं अपनी कोई कहानी किसी को पढ़ के सुना सकता था. इत्मीनान उसकी पूरी बॉडी लैंग्वेज से बहता रहता था और हाथ उठने तक में एक अनोखा शाहीपना था. हमारी बड़ी-बड़ी योजनाओं और लंबी बातों के जवाब में वह एक हाथ ऊपर उठा के सिर्फ़ इतना कहता, “कोच्छ नहीं....”. उसकी योजनाएं उसके तीव्र दिमाग की उपज थीं और बाकी किसी की कोई योजना, चाहे वह जितनी भी अच्छी हो, उसे प्रभावित नहीं कर पाती थी. तब तक हमने बकैती को साक्षात नहीं देखा था और ये अनुभव यादगार रहा. एक बनारसी होने के नाते मैंने ‘भौकाल’ को कई बार साक्षात देखा था लेकिन ये इलाहाबाद था और वहीँ मुझे पता चला कि हर शहर की खासियतें अलग होती हैं और यह इलाहाबादी बकैती थी जिसका दुनिया में कहीं कोई तोड़ नहीं था. अनिरुद्ध ने अपनी तरफ से कभी नहीं कहा कि वह यूथ कन्वेंशन नहीं कराएगा बल्कि मुझे पूरा यकीन है कि अब भी मैं उसे फ़ोन करूँ तो वह कुछ नयी योजनाएं ज़रूर बताएगा. हमने खुद ही अंदाज़ा लगा लिया जब एक दिन हमने जोश में भर कर उसे फ़ोन किया और कहा कि हम उसके घर प्लानिंग के लिए आने वाले हैं. उसने पूछा कि हम कितनी देर में पहुँच जायेंगे, हमने बताया कि हम अधिक से अधिक पैंतालीस मिनट में सिविल लाइन्स से अल्लापुर पहुँच जायेंगे.

जब हम पहुंचे तो तीन बार बजाने पर उसने दरवाज़ा खोला. हम जानते थे कि गजगामिनी की तरह उठ कर आने में इतना वक्त तो लगेगा ही इसलिए हमने जल्दबाजी नहीं दिखाई. वह आया और दरवाज़ा खोल कर दरवाज़े के पास बने बाथरूम में घुस गया. हम सामने जाकर उसके कमरे में बैठे जो उसके वकील पिताजी का चैंबर भी था और उसमे वकालत की मोटी-मोटी किताबें रखीं थीं. वह बाथरूम से झूमता हुआ आया और विवेक की बगल में बैठता हुआ बोला, “एक घंटे से पेशाब लगी थी लेकिन उठने का मन नहीं कर रहा था तभी तुम लोगों का फोन आ गया कि तुम लोग पौन घंटे में आ जाओगे. फिर हम सोचे कि अब इकठ्ठे जब दरवाज़ा खोलने उठेंगे तभी.....”

मैंने विवेक का चेहरा देखा और विवेक ने मेरा. हम दोनों ने एक दूसरे में माथे पर बड़े-बड़े अक्षरों में मूर्ख लिखा हुआ पढ़ा और उसके बिस्तर पर ढेर हो गए.

                                 २०.           

मुझे लोज छोड़ने का पछतावा होने लगा था जिसमें इस अँधेरे कमरे का बहुत बड़ा रोल था. दिन में भी बत्ती जलाये रखनी होती थी और नहाने के दौरान अगर बत्ती चली जाए तो मैं खुद को एक ऐसी अँधेरी दुनिया में पाता था जहाँ पानी गिरने की आवाज़ से मुझे नल बंद करना होता था और रोज़ के अभ्यास से वहाँ से निकलना होता था. मुझे लगने लगा था कि अगर मैंने ये कमरा नहीं छोड़ा तो किसी दिन अँधेरे में किसी चीज़ से टकरा कर मैं इस दुनिया से विदा हो जाऊंगा. मेरी लाश दो तीन दिन तक लावारिस पड़ी रहेगी और जब सुशील भईया बदबू सूंघ कर ऊपर आएंगे तो तुरंत विवेक को फोन लगाएंगे, “अरे यार विमल, विवेक तो मर गया. उसकी लाश यहाँ पड़ी हुई है.”

विवेक कहेगा, “भईया मैं विवेक हूँ और जो मरा है वो विमल है.”

सुशील भईया अपनी गलती सुधारेंगे और कहेंगे, “हाँ यार, याद आया ये तो विमल है. तुम तो थाने वाली सड़क पर रहते हो ना ?

“हाँ भईया.” वो कहेगा.

“कमरे की बात तुमने ही की थी ना ?” वह फिर से आश्वस्त होना चाहेंगे.

“हाँ भईया, अपने दोस्त विमल के लिए जो वहाँ रहता है.” वह सफाई देगा.

“हाँ हाँ विमल...तो वही तुम्हारा दोस्त विमल मर गया है, तुम आ जाओ यहीं.”

विवेक कहेगा कि वो तुरंत आ रहा है तो सुशील भईया कहेंगे, “यार आते वक्त एक बीस रुपये का वोडा लेते आना.”

मैं इस कल्पना से घबरा उठता. हालाँकि मेरी कहानियों की पहली किताब छप गयी थी लेकिन मैं उस समय प्यार में था और मरने के लिए कतई तैयार नहीं था. मरने से पहले मैं कुछ और किताबें लिखना चाहता था और जिस लड़की से प्यार में था, उससे शादी करना चाहता था. मैंने विवेक से कहा कि इस कमरे में आना मेरी गलती थी और वह मेरे लिए कोई और कमरा खोजे. उसने कहा कि उसकी ‘विवेक प्रोपर्टीज’ के नाम से प्रोपर्टी डीलिंग की कोई दुकान नहीं है और कमरे खोजने का काम मैं खुद करूँ. हालाँकि मेरे सामने ऐसा बोलने के बाद विवेक ने कमरा खोजना शुरू कर दिया था.

मैं कमरा छोड़ने के बाद एकाध बार लोज में दूबे जी से मिलने गया या कहें कि शोले की दुकान पर चाय सिगरेट पीते हुए वह मिल गए तो मुझे भीतर खींच ले गए. लोज छोड़ने के बाद जब मैं वहाँ गया तो वहाँ के बाशिंदों ने मेरा स्वागत शादी के बाद मायके लौटी हुई बेटी की तरह किया और मुझे बताया गया कि यहाँ मेरे पीठ पीछे मुझे ‘साईंटिस्ट’ कहा जाता था जिसमे मेरे हुलिए और दूसरों से कम बात करने की आदत का रोल था. वहाँ तैयारी कर रहे बच्चों को मेरा किरदार शक्तिमान सीरियल के डॉक्टर जैकाल की तरह लगता था और ये जानने के बाद मुझे पता चला कि क्यों जब मैं कहीं जाने के लिए बाहर निकलता था तो कुछ लोग पीछे से चिल्लाते थे, “पॉवर...पॉवर.” फौजी ने भी मेरा स्वागत किया और मुझे सुबह-सुबह ही पीने के लिए कुछ नशीला पदार्थ ऑफर किया जिसे मैंने प्यार से मना कर दिया.

जब मैं लोज में रहता था तो फौजी बहुत कम बार मेरे कमरे में आये थे लेकिन वह जब भी आते, किताबों से ठसाठस भरी मेरी अलमारी को बड़ी हसरत भरी निगाहों से देखते और कहते, “अरे एकाध किताब हमको भी दीजिए ना , हमारे काम लायक.”

मैं पूछता, “किस टाइप की किताब चाहिए आपको ?”

वो शरमा कर कहते, “जिसमे कहानी के साथ चित्र भी हो.”

मैं असमंजस में पड़ जाता तो वह कहते, “चित्र न भी हो तो लाइए कहानिये वाली दे दीजिए.” मैं जब उनकी मांग समझ पाया तो क्षमा मांगने के अलावा मेरे पास कोई रास्ता नहीं था.

“वैसी किताबें तो मेरे पास नहीं है भाई साहब.” वो मेरी ओर भयानक हैरत से देखते और अविश्वसनीय तरीके से मेरी अलमारी की ओर देखते हुए कहते, “का फायदा हेतना किताब रखला के जब ‘काम’ के एक्को किताब नईख धईले.” मैं उनकी उम्मीदों पर खरा न उतर पाने के कारण शर्मिंदा होता और उन्हें उस तरह की सीडियां देने का प्रस्ताव देता जिसे वह नकार देते. उनका कहना था कि देखना अनपढों का काम है, जब वह पढ़े लिखे हैं तो उनका मनोरंजन भी पढ़ने के ज़रिये होना चाहिए.

उस दिन भी फौजी ने मेरा मज़ाक उड़ाया और कहा कि एक आलमारी किताब रखने के बावजूद मेरा कलेक्शन अधूरा है. मैंने उनकी बात में हामी भरी और कहा कि मैं अपनी इस घटिया हरकत के लिए उनका गुनाहगार हूँ. उन्होंने मुझे राय दी कि इस गलती को सुधारने का एक ही तरीका है कि मैं खुद कुछ वैसी ही कहानियाँ लिखूं. मैंने कोशिश करने का वायदा किया और अपने पुराने कमरे को हसरत से देखता हुआ लौट आया.

मैं उस कमरे से भी निकल कर शाम को थाने वाली सड़क से होते हुए उसी एरिये में आ जाता जहाँ विवेक का घर था. हम शाम की चाय पीने से पहले नन्हे अंडे वाले के यहाँ अक्सर अंडे खाते. मेरे शुरुआती निर्देशों के बाद उसे मेरी रूचि याद हो गयी थी और वह हमें देखते ही कहता, “दो हाफ फ्राई, एक में मिर्चा नहीं और और दूसरे में झोंक के ?” मैं सहमति में सिर हिलाता. वह मुझे ‘मिरचे वाले भाई साहब’ के रूप में जानने लगा था. जब कभी मैं कई दिनों के लिए बनारस जाता तो वह विवेक को अकेला घूमता देख कर उससे पूछता, “उ मिर्चवा झोंकवावे वाले कहाँ गएन ?” विवेक बताता कि वो बनारस गया है तो उसे यह जानकर आश्चर्य होता कि मेरा घर इलाहाबाद नहीं बनारस है. उसका कहना था कि मैं शकल से ही इलाहाबादी दिखाई देता हूँ. हम ऑमलेट खाने के लिए वहाँ बंद पड़े दरवाज़े के चबूतरे पर बैठ कर अपनी बारी का इंतजार करते और आगे की प्लानिंग करते. मुझे मुंबई निकलना था, लेकिन कैसे और कब, ये थोड़ा अनिश्चित था. मेरा ख्याल था कि मैं इस नौकरी में ही ट्रांसफर लूँगा ताकि मुंबई में जीने खाने की दिक्कत ना हो. मैं विवेक से उस लड़की के बारे में ढेर सारी बातें करता जो मेरी ज़िंदगी में एक आशीर्वाद की तरह आई थी और मेरे पूरे वजूद पर छाती जा रही थी. कीडगंज में जब तक मैं रहा तब तक अक्सर मेरा खाना बैरहना चौराहे पर स्थित श्रीराम भोजनालय में ही हुआ और रात का खाना खाने के बाद मैं और विवेक घंटो टहलते. मैं रात में उससे फोन पर बातें करता टहलता रहता और विवेक अपनी आँखों में मेरे लिए उम्मीद लिए मुस्कुराता चलता रहता. मेरे घर से शादी के लिए पड़ रहे दबाव अब बढ़ने लगे थे और मुझे अब लगने लगा था कि मुझे वह मिल गयी है जिसके साथ मैं ज़िंदगी भर रह सकता हूँ.
वो समझने के लिहाज से बहुत कठिन लड़की थी और उसे यह बात पता थी. मुझे उसकी जटिलता पसंद थी और अब बात फोन और संदेशों से यहाँ तक पहुँच चुकी थी कि मैं उससे मिले बिना नहीं रह सकता था. हम एक दूसरे की सारी बातें बिना कहें समझ जाते और बिना मिले ही एक दूसरे की कविताओं पर रो पड़ते. अनिल अम्बानी के बारे में चाहे जितनी बुरी बातें कही जाती हों, मैं उनका एहसान कभी नहीं उतार सकता कि एसटीडी काल्स फ्री वाली सुविधा उन्हीं की फोन कंपनी देती थी. मेरे कहने पर उसने एक रिलायंस फोन ले लिया और मैंने भी. हम रात भर बातें करते और मैं एक कहानीकार होने के बावजूद उसे अपनी लिखी कवितायेँ सुनाता लेकिन उसकी कविताओं और उसकी भाषा के आगे मैं खुद को एकदम कच्चा महसूस करता. उसकी भाषा में इतनी रवानी थी कि वह साधारण मैसेज भी भेजती तो उसकी लाईनों में कविता हुआ करती. मैं उससे मिलने उसके शहर १५-१६ घंटे की दूरी तय करके पहुंचा और यह मेरी ज़िंदगी की सबसे खूबसूरत यात्रा थी. हमारी मुलाकात सपनों जैसी थी और उसके साथ उसके हथेलियों में हथेलियाँ भर कर उसका शहर घूमते हुए मैंने शादी की बात उठाई और उसने आंसुओं से जवाब दिया. शायद मेरी किस्मत ऐसी नहीं थी कि मैं उसे अपनी ज़िंदगी में शामिल कर पाता. वह कभी मुझे अपनी मजबूरियां समझा नहीं पायी या शायद मैं समझ नहीं पाया. सपनों के उस सफर की उम्र बहुत कम थी और मैं अपनी खुशियों के साथ जितने दिन भी रहा, वो मेरी ज़िंदगी के सबसे खूबसूरत दिन थे. मैं उसके शहर जाता और हम साथ-साथ बादलों पर घूमते. उसका शहर उसकी तरह ही खूबसूरत था और वहाँ के बादल बहुत पास होते. कुछ तो इतने नजदीक की आँखों में उतर आते. मैं उन दिनों बहुत जल्दी रो पड़ता था. उसने मुझे बिलकुल अपने जैसा कर लिया था और उसका शहर मुझे बचपन में बिछड़ कर जवानी में वापस मिले अपने करीबी दोस्त जैसा लगता. वह मुझे घर वालों की मर्ज़ी से शादी कर लेने के लिए कहती , और कहती कि अगर उसकी एक मांग मानी जाए तो वह यही चाहेगी कि मेरी दुल्हन को वह अपने हाथों से सजाये. मैंने हर तरीके से उसे समझाने और उसकी समस्या को समझने की कोशिश की लेकिन मैं कामयाब नहीं हुआ और तब के बाद मेरी ज़िंदगी में आगे आने वाली सारी कामयाबियाँ उस नाकामयाबी के सामने बौनी हो गयीं. खलिश मेरा स्थायी भाव हो गया और उसके बाद छोटी-छोटी बीमारियाँ भी हुईं तो उन्होंने ठीक होने में बहुत वक्त लिया और एक बड़ी बीमारी ने ज़िंदगी के सबसे बड़े टीचर की भूमिका निभाई और अब भी निभा रही है. ज़िंदगी महत्वाकांक्षाओं से रहित हो गयी लगती है और अब लगता है जो-जो काम करने का मन था उन्हें किया जाए और खुश रहा जाए. परेशानी खड़ी करने वाले लोगों और शिकायत करने वाले लोगों से कोफ़्त होती है और उन दोस्तों के साथ वक्त बिताने का मन करता है जिनके लिए ज़िंदगी की छोटी खुशियाँ मायने रखती हों. अपने आसपास जो चीज़ें खराब हैं उन्हें ठीक करने में अपना जितना 
हो सके योगदान दिया जाए और बिना कोई शिकायत या रूदन किये ज़िंदगी का आदर किया जाए.

                                                     
                                                          क्रमशः .....

                                                प्रत्येक रविवार को नयी किश्त ...




संपर्क - 

विमल चन्द्र पाण्डेय 
प्लाट न. 130 - 131 
मिसिरपुरा , लहरतारा 
वाराणसी , उ.प्र. 221002

फोन न. - 09820813904
         09451887246


फिल्मो में विशेष रूचि 


9 टिप्‍पणियां:

  1. इस बार तो सीरियस कर दिए भाई...

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  2. मस्त है. इलाहाबादी ठसक के साथ..
    अब भी इलाहाबादी बकैती का कोई तोड़ नहीं है..
    मज़ा आया..

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  3. अब तक की सारी किश्तों से अलग एक दूसरा ही रूप है इस संस्मरण में। दिल को छू गया तुम्हारा दर्शन भाई।

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  4. मैं तब भी धार्मिक नहीं था, बस बात इतनी थी कि मैंने ज़िंदगी के लिए नशे की तरह आस्था पाल रखी थी इसलिए किसी भी चीज को मैं जिज्ञासा की तरह देखता और उसे अन्वेषण की राह पर डाल देता. यही वजह थी कि मैं चीजों को खुल कर नकार नहीं पा रहा था, या अपनी राय नहीं कायम कर पाया था फिर भी चीजो को लेकर हमेशा से संशय में रहा. रही बात वीर्य की तो जो बातें मैंने कही थी वो सारा कुछ मजाक ही था और उन बातों का न तो निरोगधाम जैसी पत्रिका से कोई संबंध था , न हीं मेरे हेल्थ कॉन्सेस होने से और ना ही व्यक्तिगत व्यवहार से. निरोगधाम जैसी पत्रिका भइया और कुछ सीनियर प्रतियोगी लाया करते थे जिनकी वजह से उन्हें फायदा हुआ था, वे ऐसा मानते थे. मैं तो बस कुछ "नया" जानने और दिमागी बीमारियों में रूचि की वजह से पढ़ लिया करता था. गौने की समय मेरी उम्र चौबीस हुआ करती थी तब कोई भी तैयारी मेरे समझ से परे थी. और क्या कहे तुम्हारे अंदाजे बयां के सामने ? बाक़ी चीजे सही और जरूरी है जारी रखो.

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  5. गजब विमल भाई .हमेशा की तरह शानदार .और शेषनाथ तो ऐसे लिख रहे है जैसे बलिया गाजीपुर वाले खुद को बिहारी नहीं बताने में परेशां रहते है .

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  6. kya baat hai...aap k iss kist ki antim paira....bilkul chandan daas ji k ek gazal se milta hai....

    "ghar me bikhari hui chijo ko sawara jaaye..."

    susil bhaiya aur us badal waale shahar ki yaado ne bilkul

    mirchawala haalf fry bana diya hai....

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  7. परेशानी खड़ी करने वाले लोगों और शिकायत करने वाले लोगों से कोफ़्त होती है और उन दोस्तों के साथ वक्त बिताने का मन करता है जिनके लिए ज़िंदगी की छोटी खुशियाँ मायने रखती हों. अपने आसपास जो चीज़ें खराब हैं उन्हें ठीक करने में अपना जितना
    हो सके योगदान दिया जाए और बिना कोई शिकायत या रूदन किये ज़िंदगी का आदर किया जाए.
    ..........ye bahut hi badi uplabdhi hai !!

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  8. ye kisht sabse umda......hansi ke saath thode aansu bhi....really great......abhi tak koi bhi kisht poori nahi padi thi..but ise padna shuru kiya to last line tak kab pahunchi pata hi nahi chala....laga ki ye kisht sabse choti hai........really really amazing.......

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