गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

कहानी संग्रह 'सत्यापन' की समीक्षा






कैलाश वानखेड़े के कहानी संग्रह ‘सत्यापन’ की सभी कहानियां उस भाव-भूमि को केंद्र में रखकर लिखी गयी हैं , जिनमें हमारे समाज एक बड़ा तबका समय के एक लम्बे दौर में अमानवीय जीवन जीता आया है , और उसी समाज के शीर्ष पर बैठे लोगों ने उसे यह जीवन रसीद किया है | यह संग्रह हमें यह भी बताता है , कि यह कोई गल्प नहीं , वरन एक नंगी सच्चाई है , और इस सच्चाई को हमें न सिर्फ स्वीकार करना चाहिए , वरन उसे सार्थक दिशा में बदलने का प्रयास भी करना चाहिए | यह संग्रह समस्याओं पर तो उंगली रखता ही है , हमारे सामने प्रकारांतर से एक विकल्प भी सुझाता चलता है , कि इस समाज को कैसा होना चाहिए |

 प्रस्तुत है कैलाश वानखेड़े के कहानी संग्रह “सत्यापन” पर मनोज पाण्डेय की लिखी समीक्षा
                                
आजादी के लिए संघर्ष-प्रक्रिया में विकसित हुए सामाजिक-मानवीय मूल्य,दुनिया भर में प्रभावी हो रही लोकतान्त्रिक विचार पद्दति, आजादी के बाद संविधान और दलित-चेतना के उर्ध्वाधर विकास ने भारत में हजारों सालो से चली आ रही अमानवीयता को हर संभव तरीके से ध्वस्त करने का नया रास्ता खोल दिया.वोट देने का समान अवसर मुहैया करवा कर हमारे संविधान निर्माताओं ने राजनितिक रूप से सभी नागरिको को बराबर कर दिया.यह कदम अपने आप में कालातीत प्रभाव से सम्पन्न है.भारत के अबतक के इतिहास में पहली बार किसी ठोस एवं व्यवहारिक स्तर पर सभी को समानता का वास्तविक आधार प्रदान किया गया था.यह समानता आधुनिक भारतीय राजनीती की एतिहासिक परिणति और संविधान निर्माता के तौर पर डा आंबेडकर को दी गयी जिम्मेदारी का अनिवार्य परिणाम थी.भारतीय राजनीती और समाज को जानने-समझने वाले इस बात से सहमत होंगे कि संविधान निर्माण में डा आंबेडकर की प्रभावी भूमिका नही होती तो शायद इस समानतामें कोई न कोई पेंच जरूर होता.इसके अलावा विकास की धारा में किनारे किये गये जातीय समूहों को बराबरी मुहैया करने के लिए आरक्षणकी व्यवस्था की गयी.इस व्यवस्था का एक बड़ा और सार्थक परिणाम यह रहा कि दलित समाज के बीच से धीरे-धीरे मध्यवर्ग का अस्तित्व उभरने लगा.

आरक्षण की व्यवस्था के कारण दलित जातियों के नौजवान सरकारी नौकरियों में आना निश्चित होना आरंभ हुआ.यह माना और कहा जाता रहा है कि नौकरी में आने के बाद दलित व्यक्ति-समाज की सामाजिक स्थिति में बदलाव आएगा.नौकरी करने से आर्थिक स्थिति में सुधार होता है.परिणाम स्वरुप उसके सम्मान और पहचान में एक बेहतर बदलाव आएगा.इस बदलाव के बाद विकसित हुए दलित मध्य-वर्ग के एक राजनितिक दृष्टि हमे यह भी मिलती है.हमारी आम बातचीत में भी अक्सर यह सुना ही जाता है कि आगे बढ़ गये दलित अपने पीछे छूट गये लोगों की ओर ध्यान नहीं देते.भारतीय समाज का मध्य-उच्चवर्ग इस तर्क को अपनी गहरी संवेदनाकी बानगी की तरह पेश भी करता है. दलित दृष्टि और चेतना के निरंतर विकास ने इसे एकांगी स्थिति में ही बने रहने दिया है.आज दलित वर्ग से बड़ी संख्या में शिक्षित और सचेत लोगों की उपस्थिति समाज के हर स्तर पर बढ़ रही है.दलित मध्यवर्गकी परिघटना ने साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया है.आज कई भारतीय भाषाओँ में दलित-विमर्शको प्रमुख प्रवृति के तौर पर मान्यता मिल चुकी है.मराठी में दलित आत्मकथा से शुरू हुई यह सृजन सरणि ने साहित्य की अन्य विधाओं में भी अभिव्यक्त की राह बनाई है.दलित-कविता,दलित-आलोचना,दलित-नाटक और दलित-कहानी आदि लगातार और स्तरीय लेखन सामने आ रहा है. दलित कहानी में सृजन की संभावना व्यापक विस्तार दिखाई दे रहा है.

दलित साहित्य में एक बड़ा हिस्सा गाँव के जीवन की विद्रूपताओं और जातीय-बजबजाहट के साथ सामन्ती ढांचे पर मार्मिक चोट करने वाला है.शहरी जीवन से जुड़े जातीय-दंश के अनुभव-सम्पन्न रचनाओं को हिंदी जगत में उपस्थित करना एक महत्त्वपूर्ण रचनात्मक कार्यभार है.इस कार्यभार को उभरता हुआ नया दलित-मध्यवर्ग विभिन्न साहित्य-रूपं में निबाहने की कोशिस भी करता दीखता है. ऐसे में कैलाश वानखेड़े का नाम एक ऐसे कहानीकार के तौर सामने आता है जो दलित-कहानियों को मध्यवर्गीय स्वरूप और आधार पर रचते हुए उसके लिए नई सृजन भूमि तैयार कर रहे है.सत्यापनशीर्षक के साथ प्रकाशित उनके कहानी संग्रह में कुल नौ कहानियां संकलित है.इन नौ कहानियों में सत्यापित’,’तुम लोग’,’अंतर्देशीय पत्र’,’घंटी’,’महू’,’स्कालरशिप’,’उसका आना’,’कितने बुश कित्ते मनु’,और खापाहै.इन सभी कहानियों में दलित-जीवन में कदम दर कदम झेली जाने वाली कठिनाईयां,दुर्व्यवहार और चुनौतियों के साथ-साथ इन सब से लड़ते रहने की चेतना अपने स्वाभाविक आभा से संपन्न है.इन कहानियों में कथाकार ने सरकारी आफिसों और शिक्षण-संस्थानों जैसे तमाम उन जगहों का चेहरा दिखाया है,जिन जगहों को पढ़े-लिखेसमझदार लोगों के हिस्से का माना जाता है.

कैलाश की कहानियों में दलित-जीवन से वे चित्र उभरते है,जिनमे बदलते सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक का विरोधाभास स्पष्ट होता है.आज हमारे आसपास सामान्य बातचीत और व्यवहार में छुआछूतको खत्म हो चुकी स्थिति मान लिया गया है.भारतीय समाज का उच्च जातीय मध्यवर्ग इसे अपनी दरियादिली और उपलब्धि के रूप में प्रस्तुत भी करता है.कैलाश की कहानियों में परम्परागत छुआछूतका दंश नहीं है,इन कहानियों में कैलाश ने छुआछूतकी नवीनतम बारीक़ स्थितियों की पहचान की है. और इन कहानियों से हमारे समय की पुख्ता गवाही दर्ज होती है.भारतीय समाज के बारे में चिंतन का प्रस्थान-बिंदु, जाति को माना जाये तो गलत न होगा.भारतीय समाज की बनावट के रेशे-रेशे में इसकी गंध समा गयी है.कई बार धोने का प्रयास करने के बाद भी जाति के अणु इसको मजबूती से जकड़े रहते है.चाहे जितना भी इत्र-फुलेल लगा ले पर इससे इसकी दुर्गन्ध खत्म नहीं हो पा रही है.हमे तमाम पानीदार चेहरों पर इसके धब्बे और कई बार उनकी भाषा के बीच उठती भभक अक्सर महसूस होती रहती है.कैलाश की कहानियों में इन्ही धब्बों और भभक को सार्वजनिक और निजी जीवन की दरारों से निकाल कर सामने लेन का काम हुआ है.

भारतीय समाज में व्याप्त अपने किस्म की असमानता और अमानवीयता को दूर करने के एक फार्मूले पर लंम्बे समय से काम हो रहा है. आर्थिक बराबरीऔर समान अवसरवाले इस फार्मूले से जातीय-खांचों में विकसित हुए भारतीय समाज के ढांचे में आमूलचूल बदलाव नहीं हुआ है.जैसा पहले चर्चा हो चुकी है कि आज सामान्य तौर पर छुआछूतका प्रत्यक्ष अनुभव पढ़े-लिखे और शहरी जीवन में नहीं दिखाई देता है.पर दलितों के लिए विशेष सुविधाऔर उनके द्वारा हर क्षेत्र में बढ़ रहे हस्तक्षेप के खिलाफ एक खास किस्म की गोलबंदी हमे अपने आसपास होती महसूस होती रहती है.हर तरह के संसाधनों पर सदियों से काबिज जाति समूहों को आरक्षण जैसी सुविधाअपनी जिन्दगी से अवसर छिनने जैसा लगता है. "हायर एजुकेशन में मेरीट वालो का राज चलता है.मेहनत के बल पर हम लोगों की आर्थिक हैसियत थोडी बहुत बढ़ी तो रिजर्वेशन का थोडा सा बेनीफिट लेने लगे.इन्हे डाका लगता है.इनके मां बाप को भी सहन नहीं होता.बचपन से ही दूर रखा जाता है हम लोगो से. अब साथ बैठने लगे तो पहाड़ टुट पड़ा, पहाड़" इसके अलावा सामन्ती मानसिकता से ग्रसित इन समूहों के लिए सदियों से दबाये और वंचित रखे गये लोगों का सामने आता स्वाभिमानकिसी कांटे के तरह चुभता है.इन समूहों का व्यवहार उस बच्चे की तरह दिखाई देता है जो अपने अध्यापक या माँ-बाप के डर से उनके सामने तो दुसरे बच्चे को कुछ नहीं बोलता पर बाद mकिसी न किसी बहाने से उसको परेशान करने से बाज भी नहीं आता.सरकारी नौकरियों में आने वाले दलित नौजवानों के बारे इन समूहों की सामान्य मानसिकता यही होती है कि ये कमतर है और आरक्षण ही इनकी योग्यता है’.इनकी इस मानसिकता का प्रभाव हमे सार्वजानिक व्यवहारों में स्पष्ट तौर पर दिखाई देता है. कैलाश की कई कहानियों में हमें इन्ही सार्वजनिक व्यवहारों की पड़ताल मिलती है.

मध्यवर्गीय जमात अपने पास आये नये आदमी की पहचान जल्दी से जल्दी उसकी जाति के साथ कर लेने की कोशिश करता है.और इसके बाद उसका व्यवहार भी इसी धरातल पर तय होता है. मैं दूसरे साब से मिलकर आया था तो उन्होंने मेरे सारे सर्टिफिकेट देखे, आई कार्ड देखा फिर पूछा कहां रहते हो ? मैंने जवाब दिया था अम्बेडकर नगर,तो उन्होंने कहा अभी टाइम नहीं मेरे पास”. वर्चस्ववादी समूह जिन इशारों और शब्दावली में आरक्षित समूहोंको अपना निशाना बनता है.उनके कई रूपों को कैलाश के पात्र बखूबी समझते और समझाते है. शिक्षा और जीवन-मूल्यों के प्रति सचेत आज युवा दलित अपने प्रति हो रहे व्यवहार को उसके वास्तविक अप्रोच के साथ पकड़ने की कोशिश करता है. कैलाश की एक कहानी का पात्र जो छोटी-मोटी नौकरी के लिए अपनी फोटो सत्यापितकरवाने की भाग दौड़ में यह अच्छी तरह समझ चूका है उसको और उसके जैसे लोगों को सदियों से चली आ रही मानसिकता के धरातल पर ही सत्यापितकिया जाता है. मैं पूरी तरह से समझ चुका कि भाऊ साहेब इंगले को चेहरे से और मुझे, आवेदन पत्र के शब्दों के आधार पर सत्यापित किया जा चुका है. नर्स और क्लर्क जानते है कि कौन है हम."अपने साथ रोजाना होने वाले व्यवहार के दौरान प्रयोग होने वाली भाषा की भंगिमा को उसकी तीखी नोक के साथ महसूस करता है. "तुम लोग,तुम लोग.. दुकानदार कहता है तुम लोग...सब्जी वाला कहता है तुम लोग...तिवारी कहता है तुम लोग...तुम लोग...तुम लोग,बोलते वक्त क्या रहता है, इनके दिमाग के भीतर चेहरा, कपडा,जूते चप्पल...जेब...कॉलोनी, घर...क्या रहती है, दिमाग में जाति? हर आदमी हमारे लिए तुम लोग कहता है.

कई बार स्थितियां इतनी साफ और चमकदार नही होती है कि उनके सारे पहलू और रंगों को देखा जा सके.जब यह मानसिकता से जुडा हो तो समस्या और बड़ी हो जाती है.गहरी सामन्ती और ब्राह्मणवादी मानसिकता से नाभिनालबद्द व्यक्ति भी अक्सर अपनी जातीय वितृष्णाको अपनी दक्ष अभिनय क्षमता से सामने नहीं आने देता है.दिलासा भरा चेहरा लगा प्रधान पाठक का,जिसने मुझे अपने भीतर बैठी आशंका को यथावत रखते हुए राहत दी.”. कैलाश की कहानियो के पात्र अपनी इसी आशंकाको अपने दृष्टि-बोध के साथ नत्थी किये हुए है.कैलाश की सभी कहानियों में जातीय-बोध से उपजी सार्थक आशंकाकी उपस्थिति किसी न किसी रूप में है.यही आशंकाइन कहानियों को समसामयिक जीवन का एक प्रमाणिक दस्तावेज का स्तर दे देती है.कहानियां हमे इन आशंकाओंके विकसित होने के कारणों और स्थितियों से जूझने के मजबूर करती है.कोई भी कला-रूप अपनी प्रक्रिया में कलात्मकताकी अनिवार्य स्थिति और शर्त को पूरा कर लेने के बाद सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक आदि आयामों से भी जुड़ता ही है,भले ही कलाकार ने इन आयामोंको किनारे रखने की कोशिश भी की हो. यहाँ तो कैलाश की सामाजिक प्रतिबद्दता पूरी तरह स्पष्ट है,ऐसे में उनकी कहानियों में सामाजिक-सांस्कृतिक आदि आयामों का प्रभावी तेवर में उपस्थित होना लाजमी है.

कैलाश की कहानियों में स्त्री-पात्र भी अपनी जातीय-विशिष्टता की स्वाभाविक प्रतिबिम्बन के साथ उपस्थित है.जमाने भर से दबाई गयी मानी जाने वाली स्त्री भी भारतीय समाज के जातीय-बोध की मानसिकता से उसी रूप में प्रभावित दिखाई देती है,जिस तरह पुरूष-पात्र. दलित स्त्री-पात्र प्रज्ञा को मध्यवर्गीय-उच्च जाति की रागिनी की उसी मानसिकता का सामना करना पड़ता है,जो दलित युवक शैक्षिक परिसरों में करता है.आम सामाजिक जीवन-व्यवहार में तुम लोगके सर्वनाम से चिन्हित किया जाने वाले समूहका देश भर के तमाम शिक्षा-परिसरों में विभिन्न विशेषणोंसे नवाजे जाते है. मेरे साथ पहले साल शुरूवाती दिनो में रागिनी हंसते हुए कहती थी,शुडू क्या हाल है?...क्या चल रहा है?शुडू,तुम पढने की तकलीफ क्यो उठाती हो? जैसे एडमिशन हो गया है वैसे ही पास हो जाओगी.प्यार से बोलती थी रागिनी . बड़े लाड से बोलती थी रागिनी "आजा मेरी शुडू. शुड्डो .रागिनी हग करती. तब उसकी मासूमियत उसका प्यार ममता के अलावा कुछ और सोच भी नहीं सकते थे हम.रागीनी बोलती थी,जमाना बदल गया है. लाईफ में चेंज आया तो बोलने में भी.यू नो आक्सफोर्ड वालो ने कई शब्द हमारे उठा लिये है.मैंने उनको शुडू भेजा है. कॉलेज में जब बहुत सारे शुडू आ गये तो शब्द को भी आना चाहिए.लगातार विकसित होती सामाजिक और राजनीतिक चेतना के कारण ऐसी बहुत सी जगहें है जहाँ सामन्ती और ब्राह्मणवादी ताकते पहले की तरह अपनी घृणा और कुंठा को अपमानजनक शब्दोंको सीधे-सीधे नहीं बोल सकतीं हैं,इस के बावजूद अपनी भाषा में अपनी घृणा और कुंठाको अभिव्यक्त करने की कोशिशें बंद नहीं की है.

जातीय-बोध की सड़ांध से उपजी घृणा और कुंठाको आज का युवा दलित झेल तो रहा है,पर इससे लड़ने और उससे हर स्तर पर दो-दो हाथ करने में भी पीछे नहीं है.उनके तर्कों और प्रतिप्रश्नो का कोई जबाव सामन्ती और ब्राह्मणवादी ताकतों के पास नहीं होता है.कैलाश की कहानियों की स्त्री -पात्र भी जरूरी दृष्टि-बोध और संघर्ष चेतना से सम्पन्न हैं.मैंने कहा था , जितना सामर्थ्य है उतना किया मैने कोई चिटिंग नही की. मेहनत की. मेहनत के बल आई हू और यह बता दू यहॉ पास होने के लिए नही मिलता रिजर्वेशन? रागिनी का हाथ पकड़कर मैंने कहा था,एक बात कहू सेशनल मे तो तुम्हे मिलता है रिजर्वेशन. हमे तो सजा दी जाती है सेशनल में सजा भुगतते है हम. चू करे तो प्रोफेसर निपटा दे. वहॉ प्रोफेसरो की मानसिकता यहॉ तुम्हारी.. सब एक जैसो हो तुम. एक जैसे सोचते हो न बढ़े हम. न पढ़े हम.लेकिन रागिनी मैं पढूंगी अच्छी तरह से समझ ले." तब मुक्ता ने मुझे धकेलते हुए कहा था." चलो यार मेटर क्लोज करो. क्लासमेट ऐसा नही करते. चलो पीरियड का टाइम हो रहा है. "उस रात बहुत रोई मैं.मेरे साथ मुक्ता भी रोई और संघमित्रा भारती भी आई.तब लगा चलो कोई मेरे साथ है.वह अहसास नही होता तो पता नहीं क्या करती मै.सारी बहादूरी को समेटा था उस रात मैंने.".यह भारतीय शिक्षा-जगत की एक बड़ी सच्चाई है.जिसका खामियाजा कई बार इतना भयावह होता है कि दलित युवा को अपनी जान देकर इसकी कीमत चुकानी पड़ती है.कैलाश की कहानी महूदेश के उच्च शिक्षा-संस्थानों में आये दिन दलित छात्रों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं को इसी पहलू से जोड़ कर देखने की एक सफल और तार्किक कथात्मक परिणति है.

कैलाश की कहानियों का एक मजबूत पक्ष हर कहानी में पाठक का ध्यान अपनी ओर खिचता है.यह पक्ष पत्रों के संघर्ष और उसको एक तार्किक परिणति तक पहुचाने का जज्बे से जुडा हुआ है.एक कहानी का बूढ़ा पिता ,जो अपने जातीय अपमान को हर दिन सहजतासे सहता रहता है.वही बूढ़ा पिता अपने बेटे के अपमान पर क्रियात्मक प्रतिरोध दर्ज करता है.सब सुन रहे हैं.सुन रहें काका, जो बेटे के पीछे-पीछे चले आये दफ्तर ...काका सुन रहे थे और बेटे के साथ हो रहे बर्ताव को झेल रहे थे. मेरे बेटे को...मेरे बेटे के साथ ऐसी बातें...धमकी...काका के कदम मिश्राजी के कक्ष के भीतर पहुचें.घंटी लगातार बजती रही.मिश्राजी बजाते रहे घंटी और चिल्लाते रहे.कर्कश घंटी के बीच मिश्राजी के गाल पर चांटे के सुर निकलते रहे.मिश्र जी के गाल पर चांटों का सुर बजाने वाला पिता अपने बेटे को जातीय अपमान के नर्कसे निकलने के लिए पढ़ाया-लिखाया और वह सेकेण्ड क्लास अफसर भी बन जाता है.पढाईके प्रति एक सजग दृष्टिकोण कैलाश की कहानियों में अंतर्धारा है.इसी धारा के साथ तैरते हुए कहानियों के पात्र एक सार्थकऔर बेहतरजीवन के मुहाने पर पहुचते है.समर को लगा कि बुढा कह रहा हो कि उसे भी कहीं का नहीं रखा गया है." हमें कहीं का नहीं रखा है.अगले जन्म की चिंता का डर दिखा दिखाकर सदियों से पूजापाठ की मिठास से बेसुध कर रखा है. हमें होश कब आयेगा?कब खुद पर भरोसा कर हकिकत समझेंगे.. कब?उनके बीज हमारी धरती को और ये लोग हमें बंजर बनाने में लगे हुए है.बंजर नहीं हुए हम.हम बंजर नहीं हो सकते है.अमेरिकन भुट्टे से लेकर मोटी किताबों की मिठास का जहर पहचानना होगा.हमें पूजा पाठ,पाप पुण्य का डर छोड़ना होगा.पढ़ाना होगा बच्चों को.अधिकार है पढ़ना.अधिकार.अधिकार न मिले तो .." समर तय कर चुका है कि तेजस को उसी स्कूल में पढाकर ही रहूँगा.इसके लिए जो भी करना हो करूँगा.बोलते.बोलते समर ने खापा उठाया. खापा से खेत की मिट्टी पूरी तरह से दूर नही हुई है."

जन-सापेक्षता के साथ दलित-शोषित जनता की ओर से रचनात्मक संघर्ष भूमि तैयार करने वाली कैलाश की कहानियों में चाहे-अनचाहे कुछ ऐसी भी स्थितियां मिलती है,जो इनके मिजाज को कमतर करते दीखते है.अपनी कहानी महूको कैलाश प्रतीकात्मकता के साथ ख़त्म करते है,”हमारे यहाँ तहरीर चौक नहीं है?” प्रज्ञा संयत होकर बोलती है,तो कहता है नरेश,”हमारे यहाँ महू है”. ‘महूडा० आंबेडकर की जन्मस्थली है.इस तरह यह दलित-रचनात्मकता कोमिथकीय प्रक्रियाकी ओर ले जाने वाला है.दलित जीवन के लिये संघर्ष का सबसे बड़ा प्रतीक महारवाडाहै.तहरीर चौकको तार्किक समानतामहारवाडासे ही साबित होती है.इसी तरह कैलाश की कई कहानियों में जातीय कुंठा का प्रतीक ब्राह्मणपात्र ही उभरता है.अपनी ठोस सच्चाई के बाद भी यह स्थिति कई बार फार्मूलामें बदल जाने का खतरा भी झेलता है.और ब्राह्मणके आवरण में ब्राह्मणवादसाफ़ बच निकलता है.


समीक्षित पुस्तक - सत्यापन ,
कहानी संग्रह: कैलाश वानखेड़े..  
आधार प्रकाशन प्रा.लिमटेड,
एससीएफ 267 सेक्टर 16, पंचकूला-134113 हरियाणा )


समीक्षक
मनोज पाण्डेय

साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में गहरी दिलचस्पी
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कवितायें और लेख प्रकाशित
सम्प्रति – दिल्ली में अध्यापन
मो न . 09868000221


4 टिप्‍पणियां:

  1. मैंने कैलाश वानखेड़े की कुछ कहानियां पढ़ी हैं. इस समीक्षा में कहानियों में उठाये गए सरोकारों पर गम्भीरता से विचार किया गया है. दलित चेतना के मुखर स्वर वाली कहानियों की सारगर्भित समीक्षा.

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  2. dalit vimarsh par kendrit yah sameeksha yatharthbodh kee nayee tasveer prastut kartee hai.

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  3. Sarita Sharma मैंने कैलाश वानखेड़े की कुछ कहानियां पढ़ी हैं. इस समीक्षा में कहानियों में उठाये गए सरोकारों पर गम्भीरता से विचार किया गया है. दलित चेतना के मुखर स्वर वाली कहानियों की सारगर्भित समीक्षा.
    December 5 at 5:22pm · Unlike · 4
    Ar Vind tb vns me nahi tha. Lekin Ab yah sangrah vt par uplbdh hai.jald hi padhta hu.
    December 5 at 5:26pm via mobile · Unlike · 2
    Rohini Aggarwal तल स्पर्शी दृष्टि और सूक्ष्म संवेदना के कारन कैलाश जी का दलित साहित्य में विशिष्ट स्थान है. सत्यापन संग्रह इसकी पुष्टि करता है.
    December 5 at 6:54pm via mobile · Unlike · 5
    Prashant Wanjare abhinandan.....
    December 5 at 7:10pm · Unlike · 1
    Santosh Choubey कैलाश वानखेड़े की कहानियों में दलित-चेतना का स्वर इतना सधा हुआ ,सहज है कि पाठक को यह आरम्भ से ही अपनी प्रामाणिकता की गिरफ्त में ले लेता है ...इस स्वर में वंचना व निरंतर संघर्ष की आभा तो है पर इसके प्रत्युत्तर में किसी प्रकार के प्रतिशोध की हडबडी या व्यग्रता नहीं दिखती ..यह चीज कथ्य को समग्रता में तटस्थ भाव से देख पाने की दृष्टि उपलब्ध कराती है ....यों ही नहीं कैलाश जी हमारे समकालीन कथाकारों में मुझे सबसे अधिक प्रिय हैं ....सिताबदियारा को बधाई इस आलोचना हेतु...

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